Written by Dr. Priyanka Borde.
स्नेहन कर्म:
स्नेहन वास्तव में पंचकर्म का प्रथम चरण है | पंचकर्म अर्थात पाँच कर्म जो आयुर्वेद मे वर्णन किये गये है इनके नाम इस प्रकार है 1. वमन 2. विरेचन 3. बस्ती 4. नस्य 5. रक्तमोक्षण पंचकर्म चिकित्सा आरंभ करने से पहले पूर्व चिकित्सा / कर्म करना आवश्यक होता है | स्नेहन और स्वेदन इन दोनो का पूर्वकर्म मे शामील किया गया है | आचार्य काग्भट ने स्नेहन विधि अध्याय मे स्नेहन का विस्तृत वर्णन दिया है |
जो स्नेह द्रव्य शरीर में स्निग्धता लाने के लिए प्रयोग किया जाता है उसे ही स्नेहन कहते है | वैसे तो स्नेहन कर्म पंचकर्म का पूर्व कर्म है पर कई रोगो मे स्नेहन संपूर्ण चिकित्सा भी है |
(और पढे – पंचकर्म क्या है link)
स्नेहन कर्म के प्रकार :
अष्टांग हृदय मे स्नेहन के चार प्रकार बताये है | घी, मज्जा, वसा तथा तेल ये चारो स्नेह उत्तम है | इनमें घी सर्वश्रेष्ठ होता है क्योंकि घी संस्कार के अनुकुल कार्य करता है | यह मधुर होता है और विदाहकारक नही होता | तेल मे तिल का तेल सर्वश्रेष्ठ है |
रोगीयो को उपयोग के आधार पर स्नेहन मुख्य रुप से दो प्रकार होता है |
- आभ्यन्तर स्नेहन
- बाह्य स्नेहन
आभ्यान्तर स्नेहन :- जो स्नेह द्रव्य घृत या तेल के रुप मे मुख के द्वारा सेवन किया जाता है उसे आभ्यन्तर स्नेहन कहते है | आभ्यन्तर स्नेहन 3 प्रकार का होता है |
- बृहण : प्रतिदिन दाल मे डालकर या रोटी को लगाकर दाल आदि को छोंककर जो अल्पमात्रा मे स्नेह का प्रयोग होता है वही बृहणस्नेह है |
- शमन स्नेह : जो स्नेह दोष को शान्त करने के लिए प्रयुक्त होता है वह शमन स्नेह है |
- शोधन स्नेह : शोधन स्नेह उसे कहते है जिसका प्रयोग दोषो को निकालने के लिए किया जाता है |
अच्छस्नेह :
जो केवल स्नेहपान या शुद्ध स्नेहपान सेवन
किया जाता है असे अच्छेपेय कहा गया है | जिनको स्नेह सेवन करना पसंद नही या स्नेह से ग्लानि हो तो उन्हे द्रव्यो के साथ मिला कर स्नेह दिया जाता है | इसे प्रविचारणा कहते | जैसे चावल, दाल, सत्तु चावल, दूध दही सूप खिचडी, दाल, सत्तु हलवा आदि के साथस्नेह दिया जाता है |
बाह्य स्नेहन :
जिस स्नेह का उपयोग शरीर के बाहर की त्वचा को मालिश (अभ्यंग), मर्दन (दबाव के साथ मालिश), लेप (घी, तेल से सिध्द पुलिस) परिषेक (तेल की धारा से स्नान), शिरोधारा (शिर पर लेज की धारा से अभिषेक) शिरोबस्ति (विशिष्ट टोपी पहन कर सिर पर तेल भरना), तर्पण आदि बाह्य प्रयोग किये जाते है |
स्नेहपान की मात्रा :
स्नेहपान की मात्रा 3 प्रकार की होती है | 1. लघु 2. मध्यम 3. उत्तम
लघु : जो स्नेह की मात्रा दो पहर (6 घण्टें) मे पच जाती है उसे लघु मात्रा कहते है |
मध्यम : जो स्नेह की मात्रा चार पहर (12 घण्टें) तक पच जाती है उसे मध्यम मात्रा कहते है |
उत्तम : जो स्नेह की मात्रा आठ पहर (24 घण्टें) तक पच जाती है उसे उत्तम मात्रा कहते है |
चिकित्सक को सर्व प्रथम रोगी के दोष, देश तथा काल आदि का विचार कर उपर दिए गए मात्रा से भी छोटी मात्रा का प्रयोग करे उसके अनुसार मात्रा निर्धारित करे |
स्नेहपान की विधि, नियम :
नियम :
जिस दिन स्नेहपान कराना है उसके पहले दिन उस दिन और स्नेहपान करने के एक दिन बाद ऐसा भोजन करना चाहिए जो पचने मे हलका, पतला (liquid ) गरम, ताजा हो |
जितने दिनो तक स्नेहपान करना है उतने दिनो तक पीने के लिए और अन्य कार्य के लिए भी गरम पानी का प्रयोग करना चाहिए | ब्रम्हचर्य का पालन करना चाहिए और क्रोध , शोक, व्यायाम इनसे दूर रहे |
स्नेहपान की अवधि (duration) :
मृदुकोष्ठ वाले व्यक्ति को अच्छस्नेह का सेवन तीन दिन तक करना चाहिए और क्रुरकोष्ठ वाले व्यक्ति को (अच्छस्नेह) का सेवन सात दिन तक करना चाहिए | मध्यकोष्ठ व्यक्ति को 5 दिन तक स्नेहपान कराना चाहिए |
विधि :
रोगी को जिसको पंचकर्म करवाना है उसे सर्वप्रथम आमदोष पाचक औषध या त्रिकटु पूर्ण देकर मल की चिकनाहट को दूर करना चाहिए | एक बार अच्छी पाचन शक्ती स्थापित होने के पश्चात चिकित्सक के मार्गदर्शन पर 3- 7 दिनो तक रोगी के कोष्ठबल अग्नि बल और रोग की अवस्थानुसार स्नेह की मात्रा निर्धारित करे |
स्नेहन के लिए प्रयोग किये जाने वाले पदार्थ :
गाय का घी, तिल का तेल, पशु की मासपेशियो की चर्बी और अस्थि मज्जा चार प्रकार के वसा होते है जो आमतौर पर दिए जाते है |
स्नेह योग्य व्यक्ति :
स्नेहन (तेल लगाने की थेरपी) उन लोगो के लिये उपयुक्त है जिन्हे स्वेदन (पसीने का उपचार) अथवा पंचकर्म चिकित्सा दी जानी है , जिनकी त्वचा मे खुरदरापन है जो वात असंतुलन के कारण पिडीत है, जो लोग शारीरीक व्यायाम, शराब और महिलाओ मे लिप्त है. जो मानसिक तनाव से पीडित है , जो बहुत अधिक सोचते है, क्षीण, शुष्क, रक्तहीन और वीर्य हिन हो (शुक्रधातु क्षीण हो गया हो) जो वात, तिमिरा-नेत्रहीनता, अंधापन के रोगो से पीडित हो |
स्नेहन अयोग्य व्यक्ति :
- जिसका अग्नि मंद अथवा तीक्ष्ण हो. अतिसार
- आमाजीर्ण
- उदररोग
- मुर्च्छा
- वमन, अरुचि
- गर्भपात वाली स्त्री
- कफज रोग
- मदाम्त्यय
- तृष्णा
सावधानीया :
जितने समय तक स्नेहपान करना है उतने समय तक केवल शात्रि मे ही शयन करे मल-मुत्र वेगो को ना रोके, अधिक भाषण ना करे, अधिक देर तक खड्डे ना रहे | धूल, धुआ इनसे दुर रहे | यात्रा ना करे |