मन (Mind) आयुर्वेद के अनुसार मन के अपने गुण और क्रियाए होती है |मन धारणा और ज्ञान में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ये इंद्रियो और आत्मा के बीच मध्यस्थ है। व्यक्ति जो देखता है, सुनता है, छूता है , चखाता है और सुंघता है वैसी संवेदनाये मन और बुद्धि द्वार संसदित की जाति है। शरीर और मन के उच्च पोषण के लिए भोजन की गुणवता, खाना पकाने की विधि , खाने का स्थान और आहार नियम महात्वपूर्ण है, क्यों की भोजन का सूक्ष्म भाग मन का पोषण करता है।इसीलिये कहा गया है “जैसा अन्न वैसा मन” ! अन्ना का सीधा प्रभाव हमारे मन पर होता है। जिस प्रकार का हमारा भोजन होगा उसी प्रकार का मन बनेगा।
मन्यते अवबुध्यते ज्ञायते अनेन ज्ञति मन: |
जो किसी वस्तु को जानने मे सहायक हो, उसे मानस कहते है | मन जड होते हुए भी सभी गतिविधियो को करता है |
वर्णन
आयुर्वेद मन
आयुर्वेद मे मन को उभयेंद्रिय माना गया है | पांच कर्मेद्रिंया ओर पांच ज्ञानेंद्रिया है उसमे मन, कर्मेद्रिय एवं ज्ञानेंद्रिय दोनो मे शामिल है अत: मन को उभयेंद्रिय कहा गया है |
मन कहा स्थित है ?
आयुर्वेद के अनुसार हृदय को मन का निवास स्थान माना गया है | वही योग ग्रंथो के अनुसार मन मस्तिष्क और हृदय दोनो मे वास करता है ऐसा कहा गया है |
मन क्या है ?
मन: एवं मनुष्याणा बन्धनात् मोक्षायो कारणाम |
बन्धाय विषया संगी मुक्तये निविषय मन : || विष्णुपुराण
विचारो का समुह ही मन है | मनन करने की शक्ती का स्त्रोत भी मन ही है | प्रकृती ने मन की सत्ता देकर ही मनुष्य को अन्य जीवो से पृथक और श्रेष्ठ किया है | जो मनन कर सकता है वही मनुष्य है |
मन का प्राकृतिक स्वभाव चंचलता है | मन कभी रमता नही, भ्रमण ही करता रहता है | मन की गती सबसे अधिक गतिमान है एक निमिष मे ब्रम्हांड भ्रमण करने की गति मन मे है |
मन कैसे काम करता है ?
मन का कार्य ग्रहण करना या त्याग करना है | और मन बुध्दि को निर्णय के लिए भेजत है अर्थात मन और बुध्दि दोनो एक साथ काम करते है |
भगवदगीता मे मन को सबसे बडा मित्र और सबसे बडा शत्रु भी कहा गया है अगर मन को नियंत्रित ना किया जाए तो मन सबसे बडा शत्रु भी हो सकता है | मन का कार्य है इंद्रियो काम उनके संबंधित विषयो मे लीन करना | स्वयं को नियंत्रित करने के लिए और अवाहिती विषयो से अलग रहने के लिए विषयो के अर्थ को समझना उनका विश्लेषण करना अनका अर्थ समझना |
मन के कार्यो के पालन करते हुए बुध्दि योग्य अयोग्य निर्णय लेती है |
मन के दोष और गुण
सत्व, रजस और तमस ये तीन गुणो मे से दो यानि रज और तम इनको दोष बताया गया है |
सत्व मन का सवौच्च गुण है | यदि कोई बहुत ही आध्यात्मिक, सदाचारी सत्ववादी है तो उसे सात्विक कहा जाता है |
चरक संहिता मे सत्व को मन का गुण कहा गया है | दोष के रुप मे नही.
रजस बढ जाए तो व्यक्ती अधिक संसारिक और लालची हो जाता है | वही अगर तमस बढ जाए तो आलसी, निद्रालु और अज्ञानी हो जाता है |
मानसिक रोग
आयुर्वेद को शरीर और मन दोनो को रोग का आश्रय (आधार) भी माना गया है | आरोग्य का आधार भी शरीर और मन ही है |
जैसे मन के काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि रोग होते है और कुछ रोग मन और शरीर दोनों से संबंध होत है उन्माद, (Schizophrenia) अपस्मार (epilepsy) मुर्च्छा (unconsciousness) आदी |
चरक संहिता मे मन के रोगो के लिए सत्वावजय चिकित्सा बतायी गयी है जिसमे ज्ञान, विज्ञान, र्धेर्य, स्मृति और समाधि ये शामील है |
मन को अहितकर विषयो से हराना ही “सत्वावज्ञय” कहलाता है | मानसिक रोगो के चिकित्सा मे तीन अर्थात त्रिविधर्मोषधम का उल्लेख किया है उसमे दैवव्यापश्रय युक्तिव्यावाश्रय और सत्वावजय ये शामील है |
1)दैवव्यपाश्रय चिकित्सा:
दैवव्यपाश्रय चिकित्सा में गैर औषधि उपाय शामिल है। इसमें मंत्रो का जाप, मणि (रत्ना धरण करना),उपहार, एच होम , (आहुति), नियम (शास्त्रीय नियमों का पालन), पश्चिमाप, उपवास शामिल है।
2)युक्ति व्यापश्रय चिकित्सा :
युक्तिव्यापाश्रय चिकित्सा में आहार, आचार, तथा औषध द्रव्यों का युक्तियुक्त धंग से प्रयोग किया जाता है। आचार्य चरक के अनुसार जिस व्यक्ति के लिए आवश्यक्ता हो उस व्यक्ति के हित का विचार कर उसी प्रकार के आहार विहार या औषधि की योजना करना युक्ति केहलती है। युक्तिव्यापाश्रय चिकित्सा का प्रयोग दोष रोग के लिए किया जाता है।
3)सत्ववजय चिकित्सा:
सत्ववजय चिकित्सा में हानिकारक वस्तु से मन को नियंत्रित करने के उपचार शामिल है।
इस प्रकार आयुर्वेद में मन, और मानसिक रोग की चिकित्सा का वर्णन दिया गया है। उम्मेद है ये ब्लॉग आपको मन के विषय में जानने के लिए मददगार होगा।